*संत असंतन्हि कै असि करनी।*
*जिमि कुठार चंदन आचरनी॥*
*काटइ परसु मलय सुनु भाई।*
*निज गुन देइ सुगंध बसाई॥*
रामचरितमानस : उत्तरकाण्ड।
संत और असंतों की करनी ऐसी है जैसे कुल्हाड़ी और चंदन का आचरण होता है। कुल्हाड़ी चंदन को काटती है (उसका स्वभाव या काम ही वृक्षों को काटना है), किंतु चंदन अपने स्वभाववश अपना गुण देकर उसे भी (काटने वाली कुल्हाड़ी को) सुगंध से भर देता है।
The practice of saints and dissidents is like the practice of axe and sandalwood. The axe cuts the sandalwood (as its nature or job is to cut down the trees), but the sandalwood by its nature fills it (the cutting axe) with its aroma.
*संत बनें हम श्रेष्ठ कहाएँ,*
*चंदन जैसे हम बन जाएँ,*
*खुद महकें सबको महकाएँ,*
*स्वस्थ रहें हम शुभ को पाएँ।*
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